Lekhika Ranchi

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प्रेमा--मुंशी प्रेमचंद


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इस खबर ने मुंशी जी के दिल पर वही काम किया जो बिजली किसी हरे भरे पेड़ परगिर कर करती है। वे बूढ़े तो थे ही, इसधक्के को न सह सके और पछ़ाड खाकर जमीन पर गिर पड़े। उनका बेसुध होना था कि सारा भीतर बाहर एक हो गया। तमांम नौकर चाकर, अपने पराये इकटठे हो गये और ‘क्या हुआ’। ‘क्या हुआ’। का शोर मचने लगा। अब जिसको देखिये यही कहता फिरता है कि अमृतराय ईसाई हो गया है। कोई कहता है थाने में रपट करो, कोई कहता है चलकर मारपीट करो। बाहर से दम ही दम में अंदर खबर पहुँची। वहा भी कुहराम मच गया। प्रेमा की मां बेचारी बहुत दिनों से बीमार थी। और उन्हीं की जिद थी कि बेटी की शादी जहॉँ तक जल्द हो जाय अच्छा है। यद्यपि वह पुराने विचार की बूढ़ी औरत थी और उनको प्रेमा का अमृतराय के पास प्रेम पत्र भेजना एक ऑंख न भाता था। तथापि जब से उन्होने उनको एक बार अपने आंगन में खड़े देख लिया था तब से उनको यही धुन सवार थी कि मेरी ऑंखों की तारा का विवाह हो तो उन्हीं से हो। वह इस वक्त बैठी हुई बेटी से बातचीत कर रही थी कि बाहर से यह खबर पहूँची। वह अमृतराय को अपना दमाद समझने लगी थी—और कुछ तो न हो सका बेटी को गले लगाकर रोने लगी। प्रेमा ने आसू को रोकना चाहा, मगर न रोक सकी। उसकी बरसों की संचित आशारूपी बेल-क्षण मात्र में कुम्हला गयी। हाय। उससे रोया भी न गया। चित्त व्याकुल हो गया। मॉँ को रोती छोड़ वह अपने कमरे में आयी, चारपाई पर धम से गिर पड़ी। जबान से केवल इतना निकला कि नारायण, अब कैसे जीऊँगी और उसके भी होश जाते रहे। तमाम धर की लौड़ियॉँ उस पर जान देती थी। सब की सब एकत्र हो गयीं। और अमृतराय को ‘हत्यारे’ और ‘पापी’ की पदवियॉँ दी जाने लगी।

अगर घर में कोई ऐसा था कि जिसको अमृतराय के ईसाई होने का विश्वास न आया तो वह प्रेमा केभाई बाबू कमला प्रसाद थे। बाबू सहाब बड़े समझदार आदमी थे। उन्होंने अमृतराय के कई लेख मासिकपत्रों में देखे थे, जिनमें ईसाई मत का खंडन किया गया था। और ‘हिन्दू धर्म की महिमा’ नाम की जो पुस्तक उन्होंने लिखी थी उसकी तो बड़े-बड़े पंडितो ने तारीफ की थी। फिर कैसे मुमकिन था कि एकदम उनके खयाल पलट जाते और वह ईसाई मत धारण कर लेते। कमलाप्रसाद यही सोच रहे थे किदाननाथ आते दिखायी दिये। उनके चेहरे से घबराहट बरस रही थी। कमलाप्रसाद ने उनको बड़े आदर से बैठाया और पूछने लगे—यार, यह खबर कहॉं से उड़ी? मुझे तो विश्वास नहीं आता।
दाननाथ—विश्वास आने की कोई बात भी तो हो। अमृतराय का ईसाई होना असंभव है। हां वह रिफार्म मंडली में जा मिले है, मुझसे भूल हो गयी कि यही बात तुमसे न कही।
कमलाप्रसाद—तो क्या तुमने लाला जी से यह कह दिया?
दाननाथ ने संकोच से सर झुका कर कहा—यही तो भुल हो गई। मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गये थे। आज शाम को जब अमृतराय से मुलाकात करने गया तो उन्होने बात बात में कहा कि अब मैं शादी न करूँगा। मैंने कुछ न सोचा विचारा और यह बात आकर मुंशी जी से कह दी। अगर मुझको यह मालूम होता कि इस बात का यह बतंगड हो जायगा तो मैं कभी न कहता। आप जानते हैं कि अमृतराय मेरे परम मित्र है। मैंने जो यह संदेशा पहुँचाया तो इससे किसी की बुराई करने का आशय न था। मैंने केवल भलाइ की नीयत से यह बात कही थी। क्या कहूँ, मुंशी जी तो यह बात सुनते ही जोर से चिल्ला उठे—‘वह ईसाई हो गया। मैंने बहुतेरा अपना मतलब समझाया मगर कौन सुनता है। वह यही कहते मूर्छा खाकर गिर पड़े।
कमलाप्रसाद यह सुनते ही लपककर अपने पिता के पास पहूंचे। वह अभी तक बेसुध थे। उनको होश में लाये और दाननाथ का मतलब समझाया और फिर घर में पहूंचे। उधर सारे मुहल्ले की स्त्रियाँ प्रेमा के कमरे में एकत्र हो गयी थीं और अपने अपने विचारनुसार उसको सचेत करने की तरकीबें कर रही थी। मगर अब तक किसी से कुछ न बन पड़ा। निदान एक सुंदर नवयौवना दरवाजे से आती दिखायी दी। उसको देखते ही सब औरतो ने शोर मचाया जो पूर्णा आ गयी। अब रानी को चेत आ जायेगी। पूर्णा एक ब्राह्मणी थी। इसकी उम्र केवल बीस वर्ष की होगी। यह अति सुशीला और रूपवती थी। उसके बदन पर सादी साड़ी और सादे गहने बहुत ही भले मालूम होते थे। उसका विवाह पंडित बसंतकुमार से हुआ था जो एक दफ्तर में तीस रूपये महीने के नौकर थे। उनका मकान पड़ोस ही में था। पूर्णा के घर में दूसरा कोई नथा। इसलिए जब दस बजे पंडित जी दफ्तर को चले जाते तो वह प्रेमा के घर चली आती और दोनो सखिया शाम तक अपने अपने मन की बातें सुना करतीं। प्रेमा उसको इतना चाहती थी कि यदि वह कभी किसी कारण से न आ सकती तो स्वयं उसके धर चली जाती। उसे देखे बिना उसको कल न पड़ती थी। पूर्णा का भी यही हाल था।
पूर्णा ने आते ही सब स्त्रियों को वहॉँ से हटा दिया, प्रेमा को इत्र सुघाया केवडे और गुलाब का छींटा मुख पर मारा। धीरे धीरे उसके तलवे सहलाये, सब खिड़कियॉँ खुलवा दीं। इस तरह जब ठंडक पहुँची तो प्रेमा ने ऑंखे खोल दीं और चौंककर उठ बैठी। बूढ़ी मॉँ की जान में जान आई। वह पूर्णा की बलायें लेने लगी। और थोड़ी देर में सब स्त्रियाँ प्रेमा को आशीर्वाद देते हुए सिंधारी। पूर्णा रह गई। जब एकांत हुआ तो उसने कहा—प्यारी प्रेमा। ऑंखे खोलो। यह क्या गत बना रक्खी है।
प्रेमा ने बहुत धीरे से कहा—हाय। सखी मेरी तो सब आशाऍं मिटटी में मिल गयीं।
पूर्णा—प्यारी ऐसी बातें न करों। जरा दिल को सँभालो और बताओ तुमको यह खबर कैसे मिली?
प्रेमा—कुछ न पूछो सखी, मैं बड़ी अभागिनी हूँ (रोकर) हाय, दिल बैठा जाता है। मैं कैसे जीऊँगी।
पूर्णा—प्यारी जरा दिल को ढारस तो दो। मै अभी सब पता लगये देती हूँ। बाबू अमृतराय पर जो दोष लोगों ने लगाया है वह सब झूठ है।
प्रेमा—सखी, तुम्हारे मुँह में घी शक्कर। ईश्वर करें तुम्हारी बातें सच हों। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली—कहीं एक दम के लिए मेरी उस कठकलेजिये से भेट हो जाती तो मैं उनका क्षेम कुशल पूछती। फिर मुझे मरने का रंज न होता।
पूर्णा—यह कैसी बात कहती हो सखी, मरे वह जो तुमको देख न सके। मुझसे कहो मैं तांबे के पत्र पर लिख दूं कि अमृतराय अगर ब्याह करेंगे तो तुम्हीं से करेंगे। तुम्हारे पास उनके बीसियो पत्र पड़े है। मालूम होता है किसी ने कलेजा निकाल के धर दिया है। एक एक शब्द से सच्चा प्रेम टपकता है। ऐसा आदमी कभी दगा नहीं कर सकता। प्रेमा—यही सब सोच सोच कर तो आज चार बरस से दिल को ढारस दे रही हूं। मगर अब उनकी बातों का मुझे विश्वास नहीं रहा। तुम्हीं बताओ, मैं कैसे जानू कि उनको मुझसे प्रेम है? आज चार बरस के दिन बीत गयें । मुझे तो एक एक दिन काटना दूभर हो रहा है और वहॉँ कुछ खबर ही नहीं होती। मुझे कभी कभी उनके इस टालमटोल पर ऐसी झुँझलाहट होती है कि तुमसे क्या कहूं। जी चाहता है उनको भूल जाऊँ। मगर कुछ बस नहीं चलता। दिल बेहया हो गया।
यहॉँ अभी यही बातें हो रही थी कि बाबू कमलाप्रसाद कमरे में दाखिल हुए। उनको देखते ही पूर्णा ने घूघँट निकाल ली और प्रेमा ले भी चट ऑंखो से ऑंसू पोंछ लिए और सँभल बैठी। कमलाप्रसाद—प्रेमा, तुम भी कैसी नादान हो। ऐसी बातों पर तुमको विश्वास क्योंकर आ गया? इतना सुनना था कि प्रेमा का मुखड़ा गुलाब की तरह खिल गया। हर्ष के मारे ऑंखे चमकने लगी। पूर्णा ने आहिस्ता से उसकी एक उँगली दबायी। दोनों के दिल धड़कने लगे कि देखें यह क्या कहते है।
कमलाप्रसाद—बात केवल इतनी हुई कि घंटा भर हुआ, लाला जी के पास बाबू दाननाथ आये हुए थे। शादी ब्याह की चर्चा होने लगी तो बाबू साहब ने कहा कि मुझे तो बाबू अमृतराय के इरादे इस साल भी पक्के नहीं मालू होते। शायद वह रिफार्म मंडली में दाखिल होने वाले है। बस इतनी सी बात लोगों ने कुछ का कुछ समझ लिया। लाला जी अधर बेहोश होकर गिर पड़े। अम्मा उधर बदहवास हो गयी। अब जब तक उनको संभालू कि सारे घर में कोलाहल होने लगा। ईसाई होना क्या कोई दिल्लगी हैं। और फिर उनको इसकी जरूरत ही क्या है। पूजा पाठ तो वह करते नहीं तो उन्हें क्या कुत्ते ने काटा है कि अपना मत छोड़ कर नक्कू बनें। ऐसी बे सर-पैर की बातों पर एतबार नहीं करना चाहिए। लो अब मुँह धो डालो। हँसी-खुशी की बातचीत की। मुझे तुम्हारे रोने-धोने से बहुत रंज हुआ। यह कहकर बाबू कमलाप्रसाद बाहर चले गये और पूर्णा ने हंसकर कहा—सुना कुछ मैं जो कहती थी कि यह सब झूठ हैं। ले अब मुंह मीठा करावो।
प्रेमा ने प्रफुल्लित होकर पूर्णा को छाती से लिपटा लिया और उसके पतले पतले होठों को चूमकर बोली—मुँह मीठा हुआ या और लोगी?
पूर्णा—यह मिठाइयॉँ रख छोडो उनके वास्ते जिनकी निठुराई पर अभी कुढ़ रही थी। मेरे लिए तो आगरा वाले की दुकान की ताजी-ताजी अमृतियॉँ चाहिए।
प्रेमा—अच्छा अब की उनको चिटठी लिखँगी तो लिख दूँगी कि पूर्णा आपसे अमृतियॉँ मॉँगती है। पूर्णा—तुम क्या लिखोगी, हॉँ, मैं आज का सारा वृतांत लिखूँगी। ऐसा-ऐसा बनाऊँगी कि तुम भी क्या याद करो। सारी कलई खोल दूँगी।
प्रेमा—(लजाकर) अच्छा रहने दीजिए यह सब दिल्लगी। सच मानो पूर्णा, अगर आज की कोई बात तुमने लिखी तो फिर मैं तुमसे कभी न बोलूगी।
पूर्णा—बोलो या न बोलो, मगर मैं लिखूँगी जरूर। इसके लिए तो उनसे जो चाहूँगी ले लूँगी। बस इतना ही लिख दूँगी कि प्रेमा को अब बहुत न तरसाइए।
प्रेमा—(बात काटकर) अच्छा लिखिएगा तो देखूँगी। पंडित जी से कहकर वह दुर्गत कराऊँ कि सारी शरारत भूल जाओ। मालूम होता है उन्होंने तुम्हें बहुत सर चढ़ा रखा है।

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